शंकराचार्य का त्रिविध विश्व : एक व्यापक विश्लेषण

सारांश :-
आदिगुरु शंकराचार्य भारतीय दर्शन के एक प्रमुख दार्शनिक और अद्वैत वेदांत के संस्थापक माने जाते हैं। उनका दर्शन, विशेष रूप से त्रिविध विश्व का सिद्धांत, भारतीय दर्शनशास्त्र में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। त्रिविध विश्व की अवधारणा जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति नामक तीन अवस्थाओं के माध्यम से विश्व के अनुभवों को व्याख्यायित करती है। शंकराचार्य ने इन अवस्थाओं का वर्णन करते हुए यह स्पष्ट किया कि ये सभी अवस्थाएँ माया के प्रभाव से उत्पन्न होती हैं और अद्वैत सिद्धांत के अनुरूप ब्रह्म का ज्ञान ही इनसे परे है।
इस शोध पत्र का उद्देश्य त्रिविध विश्व के सिद्धांत का गहन अध्ययन करना है, जिससे न केवल शंकराचार्य के दर्शन को बेहतर ढंग से समझा जा सके, बल्कि इस सिद्धांत का आधुनिक दर्शनशास्त्र पर प्रभाव भी स्पष्ट किया जा सके।
परिचय:-
भारतीय दर्शन में आदिगुरु शंकराचार्य का नाम एक प्रमुख स्थान रखता है। उनका दार्शनिक योगदान विशेष रूप से अद्वैत वेदांत के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है। शंकराचार्य ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को स्थापित किया, जो ब्रह्म के अद्वितीय, और निराकार स्वरूप को मान्यता देता है। उनके अनुसार, यह संसार जो हम अनुभव करते हैं, वह केवल माया का खेल है, और इस माया के पीछे जो वास्तविकता है, वह केवल ब्रह्म है।
शंकर के दर्शन में “त्रिविध विश्व” (तीन प्रकार के विश्व) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। त्रिविध विश्व का अर्थ है जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), और सुषुप्ति (गहरी नींद की अवस्था)। शंकराचार्य ने इन तीन अवस्थाओं के माध्यम से इस जगत की व्याख्या की है और यह स्पष्ट किया है कि ये तीनों अवस्थाएँ माया के प्रभाव से उत्पन्न होती हैं।
जाग्रत अवस्था :- इस अवस्था मे व्यक्ति का जगत के साथ संपर्क में होता है और वह जगत को वास्तविक मानता है। जीवात्मा स्थूल शरीर के साथ कार्य करती है और उसे सत्य मानती है।
स्वप्न अवस्था :- इसमें व्यक्ति अपनी चेतना में विभिन्न अनुभवों का सृजन करता है, जो जाग्रत अवस्था के अनुभवों से भिन्न होते हैं। शंकराचार्य के अनुसार, स्वप्न अवस्था भी माया का एक रूप है, जिसमें अनुभव सत्य प्रतीत होते हैं, लेकिन जाग्रत अवस्था के मुकाबले इसे भी असत्य माना गया है।
सुषुप्ति अवस्था:- यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति गहरी नींद में होता है, जहां न कोई स्वप्न होता है और न ही जाग्रत अवस्था की तरह का कोई अनुभव। इस अवस्था में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप के निकट होती है, लेकिन अज्ञानता के कारण इसे भी ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती।
तुरियावस्था :- शंकराचार्य के अनुसार, इन तीनों अवस्थाओं के परे एक चौथी अवस्था है, जिसे तुरियावस्था कहा जाता है। तुरीयावस्था वह है जहां जीवात्मा ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है और सभी अवस्थाओं से मुक्त हो जाता है। तुरीय अवस्था में व्यक्ति वास्तविकता के ज्ञान को प्राप्त करता है और माया के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
इस शोध पत्र में त्रिविध विश्व के सिद्धांत का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाएगा। साथ ही, यह भी समझाने का प्रयास किया जाएगा कि शंकराचार्य का यह सिद्धांत कैसे अद्वैत वेदांत के व्यापक दर्शन को समृद्ध करता है और आधुनिक भारतीय दर्शन पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है।
लक्ष्य और उद्देश्य:-
इस शोध का प्रमुख उद्देश्य शंकराचार्य के त्रिविध विश्व के सिद्धांत का गहन अध्ययन करना और इसे आधुनिक संदर्भ में समझना है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगा:-
1. त्रिविध विश्व की अवधारणा का ऐतिहासिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि में विश्लेषण।
2. शंकराचार्य के त्रिविध विश्व और अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों के बीच का संबंध।
3. आधुनिक भारतीय दर्शन में त्रिविध विश्व का प्रभाव और प्रासंगिकता।
4. त्रिविध विश्व के सिद्धांत की अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के साथ तुलना।
2. साहित्य समीक्षा (Literature Review)
2.1 ऐतिहासिक संदर्भ में त्रिविध विश्व की अवधारणा:
त्रिविध विश्व की अवधारणा भारतीय दर्शन की गहरी जड़ों से जुड़ी हुई है, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत में। वेद, उपनिषद, और ब्राह्मण ग्रंथों में इन अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें शंकराचार्य ने अपने दार्शनिक दृष्टिकोण से परिभाषित और विस्तारित किया। शंकराचार्य के पूर्व, भारतीय दर्शन में जगत के अनुभव को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा गया था, लेकिन त्रिविध विश्व की स्पष्ट अवधारणा शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के माध्यम से ही व्यापक रूप से प्रतिष्ठित हुई। इस खंड में उन प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन किया जाएगा जिनमें त्रिविध विश्व की अवधारणा की जड़ें पाई जाती हैं, और यह समझा जाएगा कि शंकराचार्य ने कैसे इन पारंपरिक विचारों को अपने अद्वैत सिद्धांत के साथ समाहित किया।
2.2 शंकराचार्य के त्रिविध विश्व पर पूर्ववर्ती शोध:-
शंकराचार्य के त्रिविध विश्व पर पहले भी कई विद्वानों ने शोध किए हैं। भारतीय और विदेशी दोनों ही विद्वानों ने शंकराचार्य के दर्शन और त्रिविध विश्व की व्याख्या पर गहन अध्ययन किया है। इस खंड में इन प्रमुख शोधों का समीक्षात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया जाएगा। उदाहरणस्वरूप, टी.एम.पी. महादेवन, स्वामी विवेकानंद, और रमण महर्षि जैसे विद्वानों और संतों के कार्यों का विश्लेषण किया जाएगा। इन विद्वानों ने शंकराचार्य के विचारों की गहराई से समीक्षा की है और त्रिविध विश्व की अवधारणा को अद्वैत वेदांत के केंद्र में रखा है। साथ ही, कुछ पश्चिमी विद्वानों जैसे पॉल ड्यूसेन और सर जॉन वुड्रॉफ ने भी शंकराचार्य के दर्शन को अपने दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास किया है।
2.3 साहित्य में त्रिविध विश्व की प्रासंगिकता और समकालीन अनुसंधान:-
वर्तमान में, त्रिविध विश्व की अवधारणा न केवल दार्शनिक चर्चा का विषय बनी हुई है, बल्कि आधुनिक मनोविज्ञान और चेतना अध्ययन के क्षेत्रों में भी इसकी प्रासंगिकता बढ़ी है। हाल के शोधों ने त्रिविध विश्व के सिद्धांत का उपयोग करके मानव चेतना की विभिन्न अवस्थाओं को समझने का प्रयास किया है। इस खंड में उन समकालीन अनुसंधानों का विश्लेषण किया जाएगा जो शंकराचार्य के त्रिविध विश्व सिद्धांत को आधुनिक संदर्भों में प्रयोग कर रहे हैं। उदाहरणस्वरूप, योग और ध्यान की आधुनिक प्रथाओं में त्रिविध विश्व की अवस्थाओं को कैसे समझा जा रहा है, इसका अध्ययन किया जाएगा।
2.4 शोध में समाहित अंतर्दृष्टियाँ और शोध की आवश्यकता:-
साहित्य समीक्षा के आधार पर, यह खंड इस बात पर प्रकाश डालेगा कि शंकराचार्य के त्रिविध विश्व सिद्धांत पर पहले किए गए शोध कहां तक पहुंचे हैं, और उन क्षेत्रों को उजागर करेगा जहां अभी और शोध की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में, हम त्रिविध विश्व की अवधारणा के दार्शनिक, धार्मिक, और सामाजिक प्रभावों की पहचान करेंगे, और उन प्रश्नों को उठाएंगे जिन्हें इस शोध पत्र में संबोधित करने का प्रयास किया जाएगा।
3. अवधारणात्मक ढांचा: त्रिविध विश्व का अद्वैत वेदांत में स्थान :-
**3.1 त्रिविध विश्व का समझ:**
शंकराचार्य के दर्शन में त्रिविध विश्व की अवधारणा मुख्य रूप से जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति अवस्थाओं के माध्यम से विश्व के अनुभव को विभाजित करती है। यह तीनों अवस्थाएँ एक भौतिक और मानसिक स्तर पर जीवन के अनुभवों को दर्शाती हैं, जो माया के प्रभाव से उत्पन्न होती हैं। शंकराचार्य के अनुसार, यह सभी अवस्थाएँ सत्य प्रतीत होती हैं, लेकिन वास्तव में यह सब एक अवास्तविकता का हिस्सा हैं, जिसे माया कहा जाता है। त्रिविध विश्व का सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि जब तक व्यक्ति इन तीनों अवस्थाओं को सत्य मानता है, तब तक वह ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है।
**3.2 त्रिविध विश्व और माया सिद्धांत:**
शंकराचार्य का माया सिद्धांत त्रिविध विश्व की व्याख्या में केंद्रीय भूमिका निभाता है। माया, जो कि अज्ञानता का प्रतीक है, व्यक्ति को इन तीनों अवस्थाओं में बांधकर रखती है। शंकराचार्य के अनुसार, माया के कारण व्यक्ति जाग्रत अवस्था में इस भौतिक जगत को वास्तविक मानता है, स्वप्न अवस्था में मानसिक छवियों को वास्तविकता मानता है, और सुषुप्ति अवस्था में अविद्या की स्थिति में रहता है। त्रिविध विश्व के सिद्धांत में माया की भूमिका यह दर्शाती है कि यह सभी अवस्थाएँ मात्र ब्रह्म के आभासी रूप हैं, और जब व्यक्ति माया को पार कर जाता है, तो वह ब्रह्म के सत्य स्वरूप को जान पाता है।
**3.3 वास्तविकता की समझ में त्रिविध विश्व का योगदान:**
त्रिविध विश्व का सिद्धांत व्यक्ति को यह समझने में मदद करता है कि ब्रह्म के सत्य स्वरूप को प्राप्त करने के लिए उसे इन तीनों अवस्थाओं से परे जाना होगा। शंकराचार्य के अनुसार, वास्तविकता का अनुभव केवल तब संभव है जब व्यक्ति तुरीय अवस्था में प्रवेश करता है, जहां वह ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है। त्रिविध विश्व का यह ढांचा न केवल अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को मजबूत करता है, बल्कि व्यक्ति को उसकी आत्मा के वास्तविक स्वरूप की ओर ले जाने में भी सहायक होता है।
### **4. तुलनात्मक अध्ययन (Comparative Analysis)**
4.1 त्रिविध विश्व और पश्चिमी दार्शनिक दृष्टिकोण:-
शंकराचार्य के त्रिविध विश्व की अवधारणा भारतीय दार्शनिक परंपरा में गहरी जड़ें रखती है, लेकिन इसकी तुलना अगर पश्चिमी दार्शनिक दृष्टिकोणों से की जाए, तो कई समानताएँ और भिन्नताएँ देखने को मिलती हैं। पश्चिमी दर्शन में चेतना की अवस्थाओं और वास्तविकता की अवधारणाओं पर भी गहन विचार किया गया है।
उदाहरणस्वरूप, रेने देकार्त (René Descartes) के “कोगिटो एर्गो सम” (Cogito, ergo sum) के सिद्धांत का उल्लेख किया जा सकता है, जहां वह स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं के बीच अंतर की चर्चा करते हैं। देकार्त के अनुसार, हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं, वह स्वप्न हो सकता है और केवल हमारा “सोच” ही सत्य हो सकता है। यह विचार शंकराचार्य के त्रिविध विश्व के सिद्धांत के कुछ अंशों से मेल खाता है, जहां स्वप्न अवस्था को भी वास्तविकता का हिस्सा माना जाता है। हालांकि, देकार्त का दृष्टिकोण मुख्य रूप से संदेहवाद पर आधारित है, जबकि शंकराचार्य का दृष्टिकोण अद्वैत वेदांत के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें माया का सिद्धांत केंद्रीय भूमिका निभाता है।शंकराचार्य के त्रिविध विश्व की अवधारणा की तुलना अगर पश्चिमी दार्शनिक दृष्टिकोणों से की जाए, तो कार्ल पॉपर की “त्रिविध विश्व” (Three Worlds Theory) विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। कार्ल पॉपर, एक प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक, ने त्रिविध विश्व की अवधारणा को भिन्न तरीके से प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने वास्तविकता को तीन अलग-अलग संसारों में विभाजित किया:
1. **वर्ल्ड 1 (World 1):** भौतिक वस्तुओं और प्रक्रियाओं की दुनिया, जिसे हम भौतिक वास्तविकता के रूप में अनुभव करते हैं।
2. **वर्ल्ड 2 (World 2):** मानसिक घटनाओं और व्यक्तिगत चेतना की दुनिया, जिसमें हमारी सोच, भावना, और धारणा शामिल है।
3. **वर्ल्ड 3 (World 3):** मानवीय ज्ञान, विज्ञान, और सांस्कृतिक उत्पादों की दुनिया, जो व्यक्तियों से परे है और समाज में प्रकट होती है।
कार्ल पॉपर के त्रिविध विश्व की तुलना अगर शंकराचार्य के त्रिविध विश्व से की जाए, तो कुछ समानताएँ और भिन्नताएँ नजर आती हैं:
**समानताएँ:**
- **जगत का विभाजन:** दोनों ही दृष्टिकोणों में विश्व को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया है। शंकराचार्य के अनुसार, यह विभाजन जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति के रूप में है, जबकि पॉपर के अनुसार, यह भौतिक, मानसिक, और सांस्कृतिक या ज्ञानात्मक रूपों में है।
- **माया और वर्ल्ड 2:** शंकराचार्य के अनुसार, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएँ माया के प्रभाव में हैं, जो वास्तविकता की समझ को विकृत करती हैं। इसी प्रकार, पॉपर का वर्ल्ड 2 मानसिक दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है, जो वास्तविकता (वर्ल्ड 1) से अलग हो सकता है, और यह भ्रामक हो सकता है।
**भिन्नताएँ:**
- **दर्शन का उद्देश्य:** शंकराचार्य का त्रिविध विश्व अद्वैत वेदांत के सिद्धांत के तहत व्यक्ति को ब्रह्म के ज्ञान की ओर ले जाता है। जबकि कार्ल पॉपर का त्रिविध विश्व विज्ञान, ज्ञान, और सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में विभाजन को स्पष्ट करता है।
- **अंतिम उद्देश्य:** शंकराचार्य के त्रिविध विश्व का अंतिम उद्देश्य तुरीय अवस्था में ब्रह्म के साक्षात्कार तक पहुँचाना है, जबकि पॉपर का दृष्टिकोण मुख्य रूप से ज्ञान और चेतना की समझ को समाज और विज्ञान के संदर्भ में प्रस्तुत करता है।
- शंकराचार्य का दृष्टिकोण आत्मज्ञान और ब्रह्म के अनुभव पर आधारित है, जबकि पॉपर का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और सामाजिक संरचनाओं के अध्ययन में सहायक है।
- इसी प्रकार, प्लेटो की “एलिगोरी ऑफ द केव” (Allegory of the Cave) भी एक समानांतर उदाहरण हो सकता है। इस कथा में प्लेटो एक ऐसे व्यक्ति का वर्णन करते हैं, जो गुफा में बंदी है और केवल छायाएँ देखता है, जिसे वह वास्तविकता मानता है। लेकिन जब वह बाहर आता है, तब उसे सच्चाई का पता चलता है। यह स्थिति शंकराचार्य के त्रिविध विश्व की अवधारणा से कुछ हद तक मेल खाती है, जहां व्यक्ति माया के जाल में फंसा रहता है और जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति अवस्थाओं को ही सत्य मानता है। लेकिन जब वह तुरीय अवस्था को प्राप्त करता है, तब उसे ब्रह्म की वास्तविकता का अनुभव होता है।
**4.2 भारतीय दर्शन में त्रिविध विश्व का प्रभाव:**
शंकराचार्य के त्रिविध विश्व का सिद्धांत भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराओं में गहरा प्रभाव डालता है, जैसे कि विशिष्टाद्वैत, द्वैत, आदि। इसके विपरीत, कार्ल पॉपर का त्रिविध विश्व सिद्धांत मुख्य रूप से पश्चिमी दार्शनिक संदर्भ में है, जिसका उद्देश्य ज्ञान और विज्ञान के दार्शनिक अध्ययन में है। पॉपर का दृष्टिकोण ज्ञानमीमांसा और समाजशास्त्र में अधिक प्रासंगिक है, जबकि शंकराचार्य का सिद्धांत आध्यात्मिक मुक्ति और अद्वैत वेदांत के दर्शन पर केंद्रित है।
4.2 भारतीय दर्शन में त्रिविध विश्व का प्रभाव:-
भारतीय दार्शनिक संप्रदायों पर शंकराचार्य के त्रिविध विश्व का गहरा प्रभाव पड़ा है। अद्वैत वेदांत के साथ-साथ विशिष्टाद्वैत, द्वैत, और अन्य वैदांतिक परंपराओं में भी त्रिविध विश्व के सिद्धांत की चर्चा मिलती है। रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य जैसे वैदांतिक आचार्यों ने भी इस अवधारणा को अपने सिद्धांतों में समाहित किया, हालांकि उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के मुकाबले भिन्न दृष्टिकोण अपनाए।
विशिष्टाद्वैत दर्शन में, रामानुजाचार्य ने भी स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं को माया के प्रभाव के रूप में समझा, लेकिन उनके अनुसार यह माया ब्रह्म के साकार रूप का आभास है, न कि निराकार ब्रह्म का। इसी प्रकार, द्वैतवादी दृष्टिकोण में मध्वाचार्य ने त्रिविध विश्व को ब्रह्म और जीवात्मा के बीच भिन्नता के दृष्टिकोण से देखा, जहां जाग्रत और स्वप्न अवस्थाएँ आत्मा के भौतिक अनुभवों को दर्शाती हैं, लेकिन इन्हें ब्रह्म से अलग माना जाता है।
इन सभी दृष्टिकोणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि शंकराचार्य के त्रिविध विश्व का सिद्धांत भारतीय दर्शन की विभिन्न धाराओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, और इसे भिन्न-भिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया है।
5. निष्कर्ष (Conclusion) :-
5.1 निष्कर्षात्मक दृष्टिकोण :-
इस शोध पत्र में शंकराचार्य के त्रिविध विश्व के सिद्धांत का गहन विश्लेषण किया गया है। हमने देखा कि त्रिविध विश्व की अवधारणा, जो की अद्वैत वेदांत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, मानव चेतना की तीन अवस्थाओं—जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति—को माया के संदर्भ में समझाता है। यह तीनों अवस्थाएँ माया के कारण उत्पन्न होती हैं और व्यक्ति को ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप से दूर रखती हैं। शंकराचार्य ने तुरीय अवस्था को इस त्रिविध विश्व के परे बताया, जहां व्यक्ति ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है और उसे माया का ज्ञान होता है।
5.2 दार्शनिक विमर्श में योगदान :-
त्रिविध विश्व का सिद्धांत न केवल अद्वैत वेदांत के दर्शन को समृद्ध करता है, बल्कि यह मानव चेतना और वास्तविकता के अध्ययन में भी महत्वपूर्ण योगदान देता है। यह सिद्धांत यह समझने में मदद करता है कि हमारी वास्तविकता केवल एक आभासी चित्र हो सकती है और वास्तविकता के साक्षात्कार के लिए आत्मा को एक उच्चतर अवस्था तक पहुँचना होगा।
इसके साथ ही, इस सिद्धांत का आधुनिक दर्शन, मनोविज्ञान, और चेतना अध्ययन में भी महत्वपूर्ण प्रभाव देखा जा सकता है। पश्चिमी दर्शन में इसकी तुलना के माध्यम से यह सिद्ध हो चुका है कि शंकराचार्य का दर्शन न केवल भारतीय संदर्भों में, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी प्रासंगिक है।
**5.3 आगे के शोध के लिए सुझाव:**
इस शोध के निष्कर्षों के आधार पर, आगे के शोध के लिए कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र सुझाए जा सकते हैं:
- त्रिविध विश्व के सिद्धांत का आधुनिक मनोविज्ञान और चेतना अध्ययन के साथ समन्वय।
- त्रिविध विश्व और अन्य वैदांतिक दर्शन जैसे विशिष्टाद्वैत और द्वैत के बीच के अंतर और समानताओं का गहन विश्लेषण।
- त्रिविध विश्व के सिद्धांत का योग और ध्यान की आधुनिक प्रथाओं में प्रयोग और इसके प्रभाव का अध्ययन।
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   *मेडिटेशंस ऑन फर्स्ट फिलॉसफी.* अनुवाद: डोनाल्ड ए. क्रेस. इंडियानापोलिस: हैकिट पब्लिशिंग कंपनी, 1993.
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13. **मध्वाचार्य.**
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